हेमन्त शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म समीक्षक)
पुण्य स्मरण :-
“गीता बाली यदि आज हमारे बीच होती तो उनका एक अपना अलग मुकाम होता”
“शरारत-शोखी और चंचलता गीता बाली के अभिनय में रची-बसी थी”
आज सुबह-सुबह जब रेडियो पर एक मधुर गीत “सारी सारी रात तेरी याद सताए…” सुनाई पड़ा तो 1958 की फिल्म “अजी बस शुक्रिया” की याद हो आयी जिसकी हीरोइन गीता बाली थी और पूरी फिल्म उसके वास्तविक अभिनय से सजी हुई थी। वैसे इस फिल्म में गीता बाली के अलावा जॉनी वाकर, शोभा खोटे, सुरेश, कमल मेहरा, कुक्कू, शम्मी, टुनटुन, मुकरी, रणधीर और अनवर हुसैन भी थे जिन्होंने अपने अभिनय में कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी थी। जिस गाने का जिक्र चल रहा है वह गाना रोशन के संगीत निर्देशन में फारुख कैसर का लिखा था जिसे लता मंगेशकर ने अपनी आवाज दी थी। यह गाना सचमुच उतना ही मधुर है जितना आज इतने वर्षों बाद नायिका गीता बाली का सादगी और सौंदर्य पूर्ण अभिनय। फिल्मों का वह समय भी ऐसा था जब फिल्मों की दुनिया सचमुच ही सुन्दर थी। यही नहीं उस दुनिया की सुन्दरता को आज भी गीता बाली सरीखी अभिनेत्रियों को सुन्दरता के लिए याद किया जाता है। गीता बाली के बारे में कई लेखकों ने कहा भी है कि अगर गीता बाली सरीखी अभिनेत्रियां ना होतीं तो हम सिनेमा के नैसर्गिक सौन्दर्य के आनन्द से वंचित रह जाते। इसमें कोई दो राय नहीं कि शरारत-शोखी और चंचलता गीता बाली के अभिनय में रची-बसी थी! छोटी-सी उम्र से अभिनय शुरू करके जल्दी ही ऐसा मुकाम बनाया कि रुपहले परदे पर उनकी हस्ती के सामने कोई अभिनेता टिक ही न पाता… उस समय 21 जनवरी 1965 को उनकी उम्र केवल 35 वर्ष थी जब वह अपने चाहने वालों को छोड़ कर चल बसीं। गीता बाली यदि आज हमारे बीच होती तो उनका एक अपना अलग मुकाम होता।
गीता बाली के किसी नैसर्गिक सौंदर्य की छवि मुझे सनी देओल यानी उनके पिता धर्मेंद्र के उसी घर “सनी विला” जिसके नीलामी की चर्चा अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर खूब छायी हुई थी, में वरिष्ठ छायाकार व पत्रकार रोमी कपूर के साथ कुछ रिसर्च करते समय दिखी। तब मैं फिल्म पत्रिका बायस्कोप में सहायक सम्पादक था और धरम जी की फिल्मों की चर्चा चलने पर उनकी एक निर्माणाधीन फिल्म “एक चादर मैली सी”(जो अधूरी रह गयी यानी उस बैनर में कभी बन न पायी) पर छानबीन की जाने लगी, जिसमें धरम जी ही हीरो थे और यह राजेंद्र सिंह बेदी के इसी नाम के उपन्यास पर बन रही थी। इस उपन्यास को पंजाब के ग्रामीण जीवन का आइना कहा जाता है। इस फिल्म की चार रीलों के फुटेज ने ही ध्यान दिलाया कि गीताबाली के नैसर्गिक सौंदर्य की फिल्मों में तब कितनी जरूरत थी जब उनका जीवन चेचक के क्रूर हाथों ने छीन लिया।
इस फिल्म के निर्माण के बारे में भी एक रोचक दास्तान का जिक्र वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार ब्रजेश्वर मदान अपने एक लेख में बताते हैं कि शम्मी कपूर से विवाह के बाद गीताबाली के फिल्में छोड़ने पर लोगों को आश्चर्य भी नहीं हुआ था क्योंकि कपूर खानदान में फिल्मी दुनिया पर पतियों और पुत्रों का ही हक समझा जाता था, पुत्री और पत्नियों का नहीं। पापा पृथ्वीराज तो इस बात के भी खिलाफ थे कि अभिनेत्रियां उनके खानदान की बहू न बनें ।शम्मी कपूर और गीता बाली के विवाह का पता भी उन्हें उनकी शादी के बाद ही चला था इसलिए उनके पास “जीती रहो” जैसा आशीर्वाद देने के अलावा कोई चारा नहीं था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शम्मी कपूर के बाद वह पोतों रणधीर और ऋषि कपूर को भी अभिनेत्री से शादी करने से नहीं रोक सके। यहां यह जिक्र इसलिए जरूरी है कि शादी के तीन-चार साल बाद जब गीता बाली ने यह फिल्म स्वीकार कर फिल्मों में लौटने का निर्णय किया तो गॉसिप पत्रिकाओं के अनुसार कपूर खानदान में जैसे तूफान उठ खड़ा हुआ था।
हालांकि लोगों को पहले ही विश्वास था कि गीता बाली देर-सबेर फिल्मों में लौटेंगी ही क्योंकि गीता बाली की फिल्मों में उनका व्यक्तित्व उस परिवार के लिए याद किया जाता था जिसे किसी बन्धन में बाधा नहीं जा सकता। उनके फिल्मों में लौटने के निर्णय का लोगों ने स्वागत किया था। साहित्यिक क्षेत्र में तो उसे इसलिए महत्व दिया जा रहा था क्योंकि उन्होंने वापसी के लिए “एक चादर मैली सी” को चुना था। राजेंद्र सिंह बेदी की इस फिल्म की शूटिंग भी शुरू हो गयी थी और गीता बाली के साथ नायक की भूमिका धर्मेंद्र कर रहे थे। यह बताने की अब तो जरूरत नहीं कि गीताबाली की मृत्यु के कारण यह फिल्म अधूरी रह गयी। बाद में यह फिल्म इसी नाम से हेमा मालिनी और ऋषि कपूर को लेकर निर्माता जी.एम. सिंह व निन्द्रजोग ने 1986 में बनायी।
उनका जन्म 1930 में अमृतसर के एक सिख परिवार में हुआ था। उनका असली नाम हरीकीर्तन कौर था। बताया जाता है कि उनके पिता रागी थे। छोटी उम्र से ही गीता बाली उनके साथ गाती थी। अभी वह 12 वर्ष की ही थी जब निर्माता रूप के. सौरी की नजर उसे पर पड़ी जिन्होंने उसे अपनी एक लघु फिल्म कोबलर में काम दिया। कोबलर में गीता बाली को देखने के बाद निर्माता मजनू ने अपनी फिल्म “बदनामी” में उन्हें एक भूमिका दे दी, लेकिन फिल्म बन नहीं पायी। किदार शर्मा की फिल्म सुहागरात ने गीता बाली को फिल्म में डांसिंग स्टार के रूप में स्थापित कर दिया तो गीता बाली की उम्र केवल 18 वर्ष थी। गांव की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में उसके नायक भारत भूषण थे। तब हिंदुस्तानी फिल्मों में नाच गानों को बहुत महत्व दिया जाता रहा इसलिए सुहागरात के बाद फिल्मों में नर्तकी-अभिनेत्री की ही भूमिकाएं ज्यादा ऑफर होने लगीं। इसके अलावा जिन फिल्मों में उनके अभिनय को उल्लेखनीय माना जाता है उसमें गुरुदत्त की फिल्मों बाजी, बाज और जाल का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। गुरुदत्त ने फिल्म बाजी में गीता बाली पर “तदबीर से तकदीर की बिगड़ी तू बना ले- किस्मत पर भरोसा है तो एक दांव लगा ले…” जैसे गीतों से फिल्मों के नृत्य को नया मुहावरा देने की कोशिश की थी। अभिनय के साथ-साथ गीता बाली की नृत्य प्रतिभा का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि भगवान दादा के साथ वह फिल्म अलबेला में आयीं तो फिल्म ने पूरे देश के दर्शकों में धूम मचा दी। उन दिनों भगवान दादा की छवि फिल्मों में नर्तक अभिनेता की थी और उनकी फिल्में अधिकतर “बी” और “सी” क्लास के दर्शकों में ही चलती थीं। भारत में वह वैसे ही लोकप्रिय थे जैसे आज गोविंदा हैं, लेकिन उनकी जोड़ी फिल्म अलबेला में भगवान दादा के साथ इतनी हिट हुई जितनी गोविंदा व करिश्मा की भी नहीं हुई होगी। गीता बाली के कारण विदेशी दर्शकों ने भी यह फिल्म देखी। यह इस बात का प्रमाण है कि कैसे फिल्म सुहागरात से लेकर फिल्म बाजी तक गीता बाली की नृत्यप्रधान भूमिकाओं ने भारत को ही नहीं विदेशी दर्शकों को भी दीवाना बना दिया था, लेकिन उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी गति थी जो दर्शकों को अपने साथ बांधकर रखती थी। वह फिल्मों में उन साधारण चरित्रों को इतना ऊंचा उठा देती थी कि दर्शक फिल्म के नायकों की बजाय उसके चरित्र के लिए फिल्मों को याद करते। आज भी पुराने जमाने के दर्शकों ने जिन्होंने फिल्म बाजी देखी है उन्हें हीरोइन का नाम याद भले ना हो लेकिन गीता बाली का नाम जरूर याद होगा। फिल्मों में उनकी मृत्यु के दृश्यों से भी जिन्दगी के महत्व का पता चलता है। गीता बाली के अभिनय-जीवन की यह विडम्बना जरूर रही है कि उनके खाते में नरगिस की फिल्म मदर इंडिया, मीना कुमारी की फिल्म साहब बीवी और गुलाम, वहीदा रहमान की फिल्म प्यासा और तीसरी कसम जैसी कोई फिल्म नहीं। इसके बावजूद वह ग्रामीण दृश्यों में नरगिस और मीना कुमारी जैसी अभिनेत्री से कम लोकप्रिय नहीं थीं। केदार शर्मा की फिल्म बावरे नैन में तो राज कपूर भी उनके सामने दब कर रह गए थे। इस फिल्म में उनकी भूमिका एक ऐसी लड़की की थी जो अपने प्रेमी की शादी में बैंड बजाती है। फिल्म के उस दृश्य को पुराने दर्शक अब तक नहीं भूले होंगे। फिल्म बावरे नैन में उन पर हरियाणवी भाषा में फिल्माया गया गीत “इब क्या होगा…” के लोकप्रिय होने का श्रेय गीता बाली को ही जाता है। उन्होंने इस गीत को हरियाणा की अल्हड़ युवती के अभिनय से अविस्मरणीय बना दिया था। तब लोगों ने कहा था कि लट्ठमार भाषा के कारण यह गीत लोकप्रिय नहीं होगा। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि जब फिल्म बावरे नैन प्रदर्शित हुई थी तो पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीन प्रदेशों में बंटा नहीं था- एक ही राज्य था। कहा जा सकता है कि गीता बाली फिल्मों में अपने साथ पंजाब की पांच दरियाओं की लहर लेकर आयी थी। अभिनय में यही लहर उन्हें उनके समकालीन अभिनेत्रियों से अलग करती थी।
देखा जाए तो उसे समय की अच्छी फिल्मों में बहुत साधारण भूमिका न मिलने के बावजूद उनके अभिनय में खुद को उस जाल से निकलने की कोशिश नजर आती थी जिनमें अधिकतर अभिनेत्रियां एक ही तरह की भूमिकाओं में उलझ गयी थीं। गुरुदत्त के निर्देशन में बनी फिल्म जाल को भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए याद किया जा सकता है। यह गीता बाली के अभिनय का ही जादू था।
हमारे फिल्मजगत में ऐसी बहुत कम अभिनेत्रियां रही हैं जो देखने वालों को अपनी दुनिया का हिस्सा बना लें और जब तक वह पर्दे पर हैं देखने वाले उस दुनिया से निकल ना पाएं। यही कारण था गीता बाली के सौंदर्य प्रतिभा और अभिनय के नैसर्गिक आनन्द के लिए दर्शक उनकी फिल्में बार-बार देखते थे। उनकी ऐसी ही प्रमुख फिल्मों को संजो कर उनके पुत्र आदित्यराज कपूर कुछ नया करने की सोच रहे हैं।
अन्त में यही कहा जा सकता है कि गीता बाली एक ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्हें देखकर लगता था कि उनका जन्म अभिनय के लिए ही हुआ था।