हेमन्त शुक्ल
पिछले दिनों अचानक वर्ष 1967 की बंगाली भाषा की अपराध थ्रिलर फिल्म “चिड़ियाखाना” देखने को मिली। इस फिल्म में उत्तम कुमार ने ब्योमकेश बख्शी की भूमिका निभायी है , जो शरदिंदु बंद्योपाध्याय की इसी नाम की कहानी पर बनी थी और निर्देशन महान फिल्मकार सत्यजीत रे का था जिसकी पटकथा भी सत्यजीत रे ने ही लिखी थी। फिल्म को एक समय इसके जटिल कथानक के कारण रे की सबसे खराब फिल्म माना जाता था, हालांकि उत्तम कुमार के लचीले अभिनय की उस समय कई आलोचकों ने प्रशंसा की जबकि उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से उन्हें नवाजा भी गया और आगे चलकर पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा बांग्ला फिल्मों के महानायक पुरस्कार से सम्मानित भी किये गए। बाद में इसी के आधार पर दूरदर्शन पर रंजीत कपूर को लेकर एक धारावाहिक भी प्रसारित हुआ था।
इसी याद के बहाने कहना जरूरी हो गया है कि बांग्ला फिल्मों के नायक उत्तम कुमार के निधन के बाद यह सर्वोच्चता किसी को नहीं मिल पायी प्रान्तीय फिल्मों के सुपरस्टार हिंदी फिल्मों के जैसे ग्लैमर और लम्बे समय तक लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाते, इस कड़वे सच के अपवाद बांग्ला फिल्मों के दिलीप कुमार कहे जाने वाले उत्तम कुमार भी नहीं थे। छोटी सी मुलाकात, अमानुष, बंदी, आनंद आश्रम, देश प्रेमी आदि हिंदी फिल्मों के बहाने उत्तम दा ने बार-बार बॉलीवुड का रुख किया मगर हर बार उन्हें लौट जाना पड़ा, इसकी वजह चाहे जो भी हो बांग्ला फिल्म उद्योग की बात उठने पर महानायक के रूप में उत्तम कुमार का ही नाम आगे आता है। 1949 में नरेंद्र सुंदर बनर्जी के निर्देशन में जब उत्तम कुमार की पहली फिल्म रिलीज हुई तब उनका नाम अरुण कुमार था। यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। दूसरी फिल्म मर्यादा भी बॉक्स ऑफिस पर लुढ़क गयी। परिस्थितियों के अनुकूल न होने से घबराए बिना 1951 में उन्होंने एमपी प्रोडक्शंस में वेतनभोगी अभिनेता की नौकरी कर ली और निर्माणाधीन फिल्म “बसु परिवार” में काम करते हुए अपना नाम बदलकर एक नया नाम उत्तम कुमार रख लिया। उनकी यह कोशिश अपने अतीत को भुलाने की थी। अबकी बार उनका नया नाम शुभ रहा। इस कम्पनी से प्रदर्शित उनकी यह पहली फिल्म न सिर्फ व्यावसायिक रूप से सफल रही बल्कि स्वयं उत्तम दा को अच्छे अभिनेता के रूप में स्वीकृति भी मिली। इसके बाद “चम्पा डांगर नौ” और “बउ ठाकुरानीर” में चरित्र अभिनेता के रूप में जाने-पहचाने गए लेकिन उनकी रोमांटिक नायक बनने की उत्कंठा “अग्नि परीक्षा” नामक फिल्म में पूरी हुई। इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी। 1977 में उत्तम दा ने बताया था कि यदि इस फिल्म में असफल होते तो शायद मेरा फिल्म करियर कोई और ही मोड़ ले लेता। हो सकता है मुझे जिंदगी भर चरित्र अभिनेता ही बनकर रहना पड़ता। बहरहाल यहीं से शुरू होती है उत्तम कुमार की जय यात्रा, जो 1926 की 3 सितम्बर को जन्म के बाद 24 जुलाई 1980 तक चली। इन दिनों वह हिंदी फिल्म “देश प्रेमी” की शूटिंग में व्यस्त थे। दो-एक बांग्ला फिल्में भी फ्लोर पर थीं कि अचानक उनका निधन हो गया। उत्तम दा की बांग्ला फिल्माकाश में अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, संगीतकार और पार्श्वगायक के रूप में भी पहचान थी। उनका करियर 1940 के दशक के अंत से 1980 में उनकी मौत तक तीन दशकों तक फैला रहा। उनकी पहली पत्नी गौरी चटर्जी रहीं जिनसे 1948 में उनकी शादी हुई। वह उनके साथ 1963 तक रहीं। 1963 में ही सुप्रिया देवी से उनकी शादी हुई जो 1980 तक उत्तम दा की मृत्यु तक साथ रहीं। उत्तम दा को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से भी विभूषित किया गया था। उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया था जिनका कमोबेस उल्लेख ऊपर की लाइनों में हुआ है।
शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि फिल्मों में आने से पहले उत्तम कुमार न तो फिल्मों की चर्चा करते थे और न ही अधिक फिल्में देखा करते थे। थोड़ा बहुत हारमोनियम पर गा-बजा लेते थे, मोहल्ले के थिएटर से भी यदा-कदा जुड़ जाते थे। पढ़ाई-लिखाई तो उनकी ज्यादा नहीं हुई थी फिर भी उन्होंने अपने को फिल्मों के लिए कैसे इतनी अच्छी तरह तैयार कर लिया… यह बात आज भी चौंकाती है।
इसकी तह में जाएं तो दो बातों का खुलासा अवश्य होता है- एक, फिल्मोंद्योग के ग्लैमर ने उन्हें कभी लुभाया नहीं- दूसरा, एक सनक के चलते वक्त कैमरे के सामने आ गए जिसने बाद में जिद का रूप अख्तियार कर लिया। शायद इसीलिए अपने करियर में आयी हर असफलता का सामना उत्तम दा ने बड़ी सहजता से किया।
अपनी सफल फिल्म “अग्नि परीक्षा” के बाद पांचवें दशक में ही उत्तम कुमार ने “गृह प्रवेश”, “मरड़ेर परे”, “साजेर प्रदीप”, “देवत्र”, “शॉपमोचन”, “विधिलिपि” “व्रतचारिणी”, “सबारउपरे”, “सागरिका”, “साहब बीवी गुलाम”, “शंकरनारायण बैंक”, “शामली”, “त्रिजामा”, “शिल्पी नव जन्म पुत्रवधू”, “बड़ी दीदी”, “जात्रा होलो शुरू”, “पृथ्वी आमारे चाय”, “तासेर घर”, दारानोसूर”, “चंद्रनाथ”, “जीवन तृष्णा”, “राई कमल”, “राजलक्ष्मीओ श्रीकांत”, “बंधू”, “मानमई गर्ल्स स्कूल”, “सूर्यतोरन”, “मरुतीर्थ-हिलाज”, “चावा पावा”, “गलि थेक राजपथ”, “खेलाघर”, “सोनारहरिन”, “विचारक”, “अवाक पृथ्वी” आदि अनेक उल्लेखनीय फिल्मों में नायक की भूमिका निभायी। उत्तम दा की अभिनय प्रतिभा का पता उनकी शुरुआती दौर की फिल्मों से ही लग जाता है। पर्दे पर उनका बोलना-चलना, हंसना एकदम वास्तविक होता था। उसमें कहीं कोई नाटकीयता नहीं मिलती थीं। सुचित्रा सेन ने उनकी इसी प्रतिभा से प्रभावित होकर कई फिल्मों में उनके साथ अपनी जोड़ी बनायी। यह सभी फिल्में सुपरहिट रहीं। छठे दशक की शामली, राई कमल, मरुतीर्थ-हिलाज, विचारक और पृथ्वी आदि फिल्में भी उनकी सुपरहिट हुईं जिसमें दूसरी नायिकाएं थी या कोई थी ही नहीं। ऐसी फिल्मों में उत्तम दा की प्रतिभा चरम पर रही। उस समय उन्हें रोमांटिक नायक ही नहीं एक और असाधारण अभिनेता भी मान लिया गया था। इसमें उनकी मदद सुचित्रा सेन, सावित्री चटर्जी, सुप्रिया देवी, कावेरी बसु जैसी नायिकाओं, सत्यजीत राय, तपन सिन्हा से लेकर अग्रदूत अजयकर, असित सेन, नीरेन लाहिड़ी, सलिल दत्त, सुनील बंदोपाध्याय, पीयूष बसु, सुधीर मुखर्जी जैसे निर्देशकों ने समय-समय पर की। इसके अलावा अनुपम घटक, नचिकेता घोष, रतीन चटर्जी, अनिल नागची, हेमंत मुखर्जी जैसे संगीतकारों और इनमें सर्वोपरि हेमंत कुमार के गाए गीतों ने उन्हें नायक से महानायक बना दिया।
उन दिनों बांग्ला फिल्मों में कई लोकप्रिय नायक भी थे- असित रनवीर मजूमदार, विकास राय, अभि भट्टाचार्य आदि। इनमें से अभि भट्टाचार्य कोलकाता-मुंबई का चक्कर लगा रहे थे और अंत में मुंबई आ गए। उस समय बांग्ला फिल्मों की हालत बहुत खराब थी। हिंदी फिल्मों का ग्लैमर बंगवासियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। अभिनय के मामले में भी बांग्ला फिल्में बहुत पीछड़ रही थीं। इधर बॉलीवुड की फिल्मों में अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद जैसे नायकों तथा नरगिस, सुरैया, मीना कुमारी, मधुबाला आदि नायिकाओं का ग्लैमर जोरदार था। ऐसे में बांग्ला दर्शकों के बीच आयी “अग्निपरीक्षा” जो सुपरहिट थी, ने उत्तम दा को बहुत नाम और ग्लैमर दिया।
1960-70 के दौरान यह भी देखा गया कि उत्तम कुमार केवल नायक ही नहीं बांग्ला फिल्मों के शुभचिंतक भी हैं। कई डूबती फिल्मों को उत्तम दा ने सिर्फ अपने करिश्में से बचा लिया। इस दौरान फिल्में एक तरह से उन पर निर्भर हो चुकी थीं। सत्यजीत राय की “नायक” और “चिड़ियाखाना” तथा सुनील बंदोपाध्याय की “एंटनी फिरंगी” इस दौर की उनकी उल्लेखनीय फिल्में थीं। सत्यजीत राय की फिल्मों से लोकप्रिय बने सौमित्र चटर्जी को ही उत्तम कुमार का एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी माना जाता रहा। अनिल चटर्जी, बसंत चौधरी जैसे तत्कालीन नायक भी लोकप्रियता में उत्तम कुमार की बराबरी नहीं कर पाए, लेकिन सौमित्र चटर्जी भी कभी उत्तम दा से आगे नहीं बढ़ पाए। उत्तम कुमार सर्वोत्तम ही नहीं महानायक थे। अब दीगर बात यह है कि एक बार उन्हें भी लगा था कि उनके स्टारडम की गाड़ी अब पटरी से उतर रही है। यह सच तब उभरा जब उनकी एक साथ आठ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल हो गयी थीं क्योंकि उनकी जय यात्रा को रोकने वाला कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं था। सातवें दशक के बीचों बीच निर्देशक शक्ति सामंत की “अमानुष”, अरविंद मुखर्जी की अग्रिश्वर, दिलीप मुखर्जी की “नागदर्पण” इसी बात को पुख्ता करती हैं। पार्थ प्रीतम चौधरी की “यदुवंश” उनको दी गयी महानायक की संज्ञा को और भी सार्थक रूप से सिद्ध कर देती है।